Wo Mujhe Khilona Samajhti Thi Poetry by Kanha Kamboj | The Realistic Dice


This beautiful Poetry 'Wo Mujhe Khilona Samajhti Thi' for The Realistic Dice is performed by Kanha Kamboj and also written by him which is very beautiful a piece.


About This Poetry :- This beautiful Poetry  'Wo Mujhe Khilona Samajhti Thi' for The Realistic Dice is performed by Kanha Kamboj and also written by him which is very beautiful a piece.


Wo Mujhe Khilona Samajhti Thi

खिलते हुए फूलों के रंग चुराने हैं 
मुझे ये मौसम तेरे संग चुराने है
तेरी जैसी मूरत एक और बनानी है 
मुझे तेरे सभी अंग चुराने है 
तेरे आँखों की नमी ही चुरा लेनी है मैंने 
तेरे आँसू तुझे करके तुम्हे तंग चुराने है।

जैसे चलाता हूं वैसे नहीं चलता
कैसे बताऊं उसे यार ऐसे नहीं चलता
खुदको मेरा साया बताता है  
फिर क्यों तू मेरे जैसे नहीं चलता
तेरे इश्क में हूं बेबस इतना मैं 
जवान बेटे पर बाप का हाथ जैसे नहीं चलता 
मुझे खिलौना समझती हो तो ये बात भी सुन लो 
अब ये खिलौना पहले जैसे नहीं चलता
दर्द, दिमाग, वार, ये शायद जंग है 
मेरी जान मोहब्बत में तो ऐसे नहीं चलता
बस यही बातें हैं इस पूरी गजल में कान्हा 
कभी ऐसे नहीं चलता कभी वैसे नहीं चलता।

जंगल से एक शजर काट रहा हूं मैं
यानि किसी का घर काट रहा हूं मैं
आइने में दर्ज करता रहा हरकतें अपनी 
ये रात खुद से मिलकर काट रहा हूं मैं
मेरा चेहरा बता रहा था गुमानियत मेरी
किसी बहरे ने कहा बात काट रहा हूं मैं 
मेरा लालच खा गया कमाई सारी  
उगने से पहले ही जो फसल काट रहा हूं मैं 
जब से पता लगा तुम्हारे ख्वाब किसी और को भी आते हैं 
तब से रात जैसे तैसे काट रहा हूं मैं 
अपनी पहचान थोड़ी पर्दे में रखो कान्हा 
लिखकर ये पूरी गजल काट रहा हूं मैं।

                                             – Kanha Kamboj










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